शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

अहोमिया चल-नाटक कोहिनूर की पेशकश



मैं मुन्नाभाई बोल रहा हूँ.

कल नाटक देखने का एक बेहतरीन तजुर्बा हुआ. गाँव की नीलांबरी छत के नीचे टाट के बोरे पर बैठकर नाटक-नौटंकी, राम-/रास-लीला और रोडसाइड नुक्कड़ नाटकों से लेकर दिल्ली के श्रीराम सेंटर/कमानी/रा.ना.वि.वग़ैरह-वग़ैरह के वातानूकूलित रंगालयों तक में कई धाँसू नाटक देखे हैं, कुछ बचपन में किए भी, लेकिन ये नाट्यानुभव सबसे अलहदा है. क्यूँकि ये ऐसा नाट्य-विधान है जो सिनेमा के नक़्शेक़दम पर चलता हुआ वहाँ पहुँचता है जहाँ सिनेमा नहीं पहुँच सकता. ये नाटक को जीवंत पेश करने की निहायत दिलफ़रेब और काफ़ी हद तक कामयाब कोशिश है. चाहे वह स्टंट हो, गीत-संगीत हो,चमत्कार(स्पेशल इफ़ेक्ट)हो,संवाद-अदायगी हो, या फिर दृश्य-संयोजन हो -- सिनेमा की गहरी छाप अहोम में 1963 से लोकप्रिय इस नाट्य-रूप में मौजूद है. ये 'सिने-नाटक' मोबाइल है: मुख़्तलिफ़ इदारों -क्लबों, स्कूल-कॉलेजों के न्योते पर शहर-दर-शहर/गाँव-गाँव घूमता है,दो-तीन शो करके,पैसे कमाकर अपने मेज़बान से साझा करता हुआ आगे बढ़ जाता है. लेकिन जिस तरह सिनेमा और नाटक कई बार नाटकेतर 'साहित्य' से अपने कथ्य लेते हैं, उसी तरह ये सिने-नाटक भी कई बार मशहूर कृतियों का रूपांतर पेश करता है. गाँवों के नाटकों में 'सीन बदलने' के लिए जिस तरह का अंतराल लिया जाता है - और जिसको भरने के लिए जिस तरह तवायफ़ों या हास्य कलाकारों की मदद ली जाती है - उसकी दरकार यहाँ नहीं है, क्योंकि शुरू होने के बाद ये लगातार, अविच्छिन्न, अबाध, विदाउट ब्रेक चलता है! जी हाँ, पल भर के लिए भी बत्ती गुल नहीं की जाती. ऐसा यूँ मुमकिन हो पाता है कि स्टेज यहाँ जुड़वाँ होते हैं, जब एक पर नाटक चल रहा होता है तो दूसरा तैयार हो रहा होता है, और कई बार तो दोनों ही मंचों का इस्तेमाल साथ-साथ होता है, और जब ऐसा होता है तब लगता है कि आप पूरे 70 एमएम पर फ़िल्म देख रहे हों. बड़ा-सा पंडाल होता है दर्शक-दीर्घा के रूप में. पर्दे दाएँ-बाएँ से भी आते जाते हैं, और ऊपर से भी गिरते हैं. ज़ाहिर है कि निरंतरता वाले नाटक में दृश्य-संयोजन में कमाल की फ़ुर्ती होनी चाहिए, और ढेर-सारे प्रॉप्स या उपादान. (मज़े की बात है कि हीरोइन हर दृश्य में नई साड़ी में नज़र आई, और लगभग उतनी ही रोती-बिसूरती भी, जितनी सामाजिक फ़िल्मों में निरूपा रॉय!)

कल के शो में हमने थाने का एक ऐक्शन सीन देखा जिसमें मोटर-मेकैनिक नायक को पुलिस का एक हाकिम और उसका बिगड़ैल बेटा मिल कर पीटते हैं, इसलिए कि उसने मुफ़्त में उनकी गाड़ी मरम्मत करने से इन्कार कर दिया था. बहरहाल, पिटते-पिटते उसके सब्र की इंतहाँ तब होती है, जब उसका पेंशनयाफ़्ता गांधीवादी बाप भी ख़बर सुनकर थाने आता है, और अफ़सर उसे भी मारने लगता है. आसमान से लकड़ी के कुंदे में लटका-बँधा हमारा नायक मनोज उसे दो हिस्सों में तोड़कर पुलिसवालों पर टूट पड़ता है, और हाकिम की पिस्तौल छीनकर उसे गोली मार देता है. जब गोली लगती है तो हाकिम की लहुलुहान पीठ देखने वालों की तरफ़ हो जाती है, रोशनी का धब्बा ज़ख़्म पर जम जाता है, पता नहीं ख़ून कहाँ से आया! मुझे अचानक बचपन में देखा गया अपने गाँव का शोले का मंचन याद आया, जिसमें गब्बर ने ठाकुर के दोनों हाथ काट दिए थे, और रक्त एसे ही कटे 'हाथों' से टपक रहा था कि कुछ दर्शकों में घोर हलचल मच गई थी, किसी ने तो पुलिस में ख़बर करने की बात भी छेड़ दी थी! मेरी तुलना को अन्यथा न लें क्योंकि अपनी विश्वसनीयता में यह नाटक एक-साथ कहीं ज़्यादा प्रभावशाली है, तो बार-बार आपको ये भी याद दिलाता है कि आप नाटक देख रहे हैं, क्योकि इस तरह का मेलोड्रामा नाटकों में ही होता है, और असल ज़िन्दगी की हर स्थिति में इतने-सारे गाने तो लोग मंच पर या फ़िल्मों में ही गाते हैं, वैसे ही जैसे कि तीन पीढ़ियों की कहानी तीन घंटे में आप किसी न किसी अदबी दीवान पर ही नुमायाँ कर सकते हैं, जीती-जागती ज़िन्दगी में नहीं. एक और गाना गराज में 'फ़िल्माया' गया था, जहाँ मुन्ना बनने से पहले मनोज और उसके साथी काम करते हैं, तो तीसरा गाना कॉलेज की कैंटीन में होता है, जहाँ मनोज/मुन्ना का बेटा अपने साथी-सहेलियों के साथ बक़ायदा जो जीता वही सिकंदर की तर्ज़ पर नाच रहे हैं. गाने की तर्ज़ वह नहीं है, हाँ दृश्यांकन की अवश्य है. एक और रोमानी दो-गाना(किसी को याद है युगल गीत/ड्यूएट को कभी ये भी कहा जाता था?) स्प्लिट-स्टेज पर मंचित होता है. एक दृश्य में अपने साथियों के साथ नाचते हुए मनोज दूसरी तरफ़ चला जाता है, जहाँ वो है, और उसकी महबूबा है, और दूसरे मंच पर कोरस चलता रहता है, इससे बेख़बर कि उधर रोमांस चल रहा है. पार्श्व-संगीत के कई ट्रैक चलते रहते हैं, बाज़ाब्ता दो सिन्थेसाइज़र और ढोलक-झाल-बाँसुरी की संगत पर, जो ऐक्शन-इमोशन के आरोह-अवरोह की लय के साथ चलते हैं - ढिशुम-ढिशुम से लेकर ढेन-टनाँ.. की आवाज़ों की आपूर्ति मंच के ऐन सामने से होती है, दर्शकों की ओर पीठ किए साज़िन्दे दृश्य के साथ ध्वनि का संयोजन करते हैं. ज़ूम-इन और ज़ूम-आउट जैसे कठिन शॉट आवाज़ की उतार-चढ़ाव के साथ रोशनी के उसकी ताल मिलाकर पूरे किए जाते हैं. आप समझ गए होंगे कि ये विधा या नाट्य-माहौल पूरा फ़िल्मी है, बस इतना और जोड़ देता हूँ कि जब मनोज, मुन्ना बन रहा होता है तो डॉन का साउन्डट्रैक चलता है, और जब उसका बाप उससे दीवार का वह यक्ष-प्रश्न उठाता है तो वो गांधी की तस्वीर की ओर उँगली उठाते हुए कहता है कि जब एक बाप बात करेगा तो मनोज बोलेगा, और जब गांधीवादी बात करेगा तो मुन्ना जवाब देगा!



काश कि मैं पूरा नाटक देख पाता, आधा ही देख पाया. काश कि मुझे अहोमिया ज़बान आती - मुश्किल से 10 फ़ीसदी बातचीत समझ पाया. ब्रोशर के अनुसार मुन्ना के बेटे को हलाँकि उसके दादा मुन्ना के साये से दूर रखते हैं लेकिन चूँकि उसके अपने हिस्से भी समाजी जुल्मो-सितम ही आता है, इसलिए वो भी अपने बाप की राह को ही श्रेयस्कर मानता है. आख़िर में दर्शकों को संबोधित करते हुए मुन्ना कहता है कि वर्तमान समय में कोई भी एक विचारधारा पूर्ण नहीं है, और नए समयानुकूल विचारों की पैरवी करता दीखता है. हमारे हिंसक, संघर्षरत समय में इस निष्कर्ष की प्रासंगिकता में किसको शक हो सकता है भला.

पारसी थिएटर और सिनेमा के संबंधों पर प्रो. कैथरीन हैन्सेन ने हाल में सीसडीएस में एक मज़ेदार पर्चा दिया था. पर यह हिन्दुस्तानी सिनेमा का पूर्वरंग है.बहु-चर्चित मालेगाँव, और सराय के साथ किया गया अनिल पांडेय का हरियाणवी फ़िल्मों का काम डिजिटल तकनीक की आमद के बाद स्थानीय तौर पर उपजे सिने-उद्योगों को रेखांकित करते हैं. लेकिन अगर सिर्फ़ तकनीकी और कलात्मक दृष्टि से देखें तो अहोमिया चल-थिएटर वह बीच की कड़ी है, जो भले ही अब कमज़ोर पड़ रही हो, पर ख़ुद को बाज़ार में बचाए रखने के लिए अभी-भी लगातार रचनात्मक जुगाड़ लगा रही है. मिसाल के तौर पर इसी शो में नाटक तो वैसे पूरा मंचित हुआ, लेकिन 20 मिनट बाद आने वाली कास्टिंग की एक वीडियो रील चली, जिसकी पृष्ठभूमि में मुन्ना के रौब और आतंक को मुकम्मल स्टाइल में दिखाया गया, संगीत के साथ.

शुक्रिया प्रो. ज्योतिन्द्र जैन का जिन्होंने रवि वासुदेवन को ये नाटक देखने बुलाया, ताकि हम भी लटक कर जा सके, रा.ना.वि. की निर्देशिका प्रो. अनुराधा कपूर, और पराग का, जिन्होंने हमें मंच के पीछे की 'स्वत:स्फूर्त' और सुपर-संयोजित सरगोशियों की झाँकियाँ दिखलाईं. हमेशा की तरह सराय के चंदन का भी जिसने ब्रोशर को स्कैन करके आप तक पहुँचाने में मदद की. इसे आप पढ़ेंगे तो हैरत करेंगे कि कोहिनूर जैसे कई चल-नाट्य-समूह हैं अहोम में और उन्होंने एक तरफ़ शेक्सपियर को मंचित किया है तो दूसरी तरफ़ टायटैनिक को!

उम्मीद करता हूँ कि ब्रोशर की कुछ और तस्वीरें यहाँ जल्द डाल पाऊँगा.

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