शनिवार, 18 जुलाई 2009

आज के मेहमान

नमस्कार, आज के मेहमान, इस कार्यक्रम में हम आपकी भेंट करवा रहे हैं हिन्दी फिल्मों और फिल्मकारों पर नियमीत रूप से लिखनेवाले जानेमाने लेखक प्रह्लाद अगरवाल से युनुस खान कि स्थल 'रिकॉर्डिंग' पर आधारित यह बातचीत.


PA: प्रह्लाद अग्रवाल

YK: युनुस ख़ान

YK: आज के मेहमान, इस कार्यक्रम में हमारे साथ हैं मशहूर लेखक प्रह्लाद अगरवाल. प्रह्लाद-जी कि विशेषज्ञता फिल्मों पर लिखने कि है और फ़िल्म संगीत पर उन्होंने बहुत काम किया, मुझे शंकर शैलेन्द्र पर इनके लिखे कई लेख याद है जो कई प्तारिकाओं में छपे हैं. प्रह्लाद-जी, बताइये कि बचपन कहाँ बीता आपका और गानों कि जो लौ है, फ़िल्म संगीत कि जो लौ है वोह कब लगी आपको?

PA: देखिये बचपन मेरा बीता जबलपुर में. जबलपुर में पैदा हुआ, जबलपुर में पढा, जबलपुर में मैंने 7/8 साल नौकरी की और नौकरी करते हुए पढा.

YK: किस इलाके में?

PA: मैंने एम पी एलेक्ट्रोसिटी बोर्ड में नौकरी की, 'क्लर्क' था मैं वहाँ पर, और बा से लेके माँ तक वहीं रहते हुए, नौकरी करते हुए पढा, और यह विचित्र बात थी कि मैं नौकरी करते हुए पढा हालांकि मुझे ऐसा करने कि ज़रूरत नहीं थी. ज़रूरत इसलिए नहीं थी क्यूंकि मेरा परिवार, मेरे स्दारे भाई बंधू, मेरा घरबार, सब बहुत सामर्थवान लोग हैं, एक ऐसे परिवार से था जहाँ सिनेमा देखना भी, या सिनेमा कि बात करना भी उतना ही गंदा समझा जाता था जितना आपका वैश्यालय में जाना. परन्तु मैं यह देखता था कि मेरे जितने बड़े भाई हैं या चाचा हैं, मामा हैं, वोह सारे सिनेमा देखते हैं मगर छिपके देखते हैं. मेरे पास पैसे नहीं होते थे इसलिए मैं छिपके नहीं देख सकता था. और जिस दिन से पैसे होने लगे, उस दिन से मैं भी छिपके देखने लगा.

YK: अच्छा! तो छिप छिप के कौन कौन सी फिल्में देखी और कौन कौन सी तल्किएस में गए छिप छिप के जबलपुर में?

PA: मैं छिप छिप के, मैंने सबसे पहली फ़िल्म जो छिपके देखी थी, वोह थी अनादी, वोह १९५९ में मैंने देखी थी और उस वक्त मैं ११ साल का था, और एक दूसरी फ़िल्म जो मुझे याद है मैंने छिपके देखी थी वोह है प्यासा.

YK: क्या बात है!

PA: यह शायद मैंने ६० या ६१ में देखी थी. मेरे बड़े भाई मेरे साथ बैठे हुए थे और 'इंटरवल' में ऐसे बैठा करते थे कि कोई देख ले. देख लेगा तो घर में शिकायत हो जायेगी. शिकायत हो जायेगी तो यह ठीक बात नहीं होगी, बहुत दांत पड़ेगी, मार-वार भी पड़ सकती थी, क्यूंकि तब तक मैं कमाता नहीं था. इतने में हुआ क्या कि हम लोगों ने गौर से जब देखा तो पाया कि ज्ञान रंजन-जी बिल्कुल सामने बैठे हुए हैं और मेरे बड़े भाईसाहब उनके विद्यार्थी थे, मैं नहीं.

YK: अच्छा

PA: वोह कॉलेज ऑफ़ कामर्स में पढ़ते थे, तो उन्होंने देखा तो उनकी तो रूह ही कांप गई, मगर जब मैंने ज्ञान-जी को देखा, क्यूंकि तब तक मैं उनकी कई कहानियां पढ़ चुका था, तो मुझे ऐसा लगा कि जो ग़लत काम मैं कर रहा हूँ, वोही ग़लत काम यह इतना बड़ा आदमी कर रहा है जिसने पिटा कहानी लिखी है. तो यह कोई ग़लत काम नहीं है. और जब मैंने प्यासा पर पूरी एक किताब लिखी, जो मेघा बुक्स से छपी है, तो मैंने उस किताब को ज्ञान रंजन-जी को समर्पित किया. तो ज्ञान-जी ने कहा कि 'मुझे बहुत अच्छा लगा कि...', मैंने कहा 'यह अच्छा लगने कि बात नहीं है, मैंने अपना क़र्ज़ उतारा है, मेरे मन पे जो एक भारी बोझ था कि मैं ग़लत काम कर रहा हूँ, वोह उतर गया था उस दिन'.

YK: क्यूंकि ज़िक्र प्यासा का है, तो आप मेरा इशारा समझ ही रहे होंगे.

PA: प्यासा फ़िल्म कि गानों कि अगर बात करें, तो बहुत बहुत बार सुनी गई है, "दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है", "जाने वोह कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला", और भी कई गाने है उसमें, "जाने क्या तुने कही", और एक अद्भुत गीत है "आज सजन मोहे अंग लगालो". यह मैं ज़रूर जानता हूँ कि यह गीत सुनकर एक अद्भुत संसार आपके भीतर निर्मित होता है.

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Song: aaj sajan mohe ang lagaalo (Pyasa)
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YK: फिल्मी गीतों के बारे में लिखना, हिन्दी साहित्य में और हिन्दी पत्रकारिता में, दोयम दर्जे का माना जाता है, फ़िल्म पत्रकारिता को भी बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता रहा है, जैसा कि आपने कहा 'सिनेमा देखना ही हमारे यहाँ अच्छी बात नहीं थी'. आपने संगीत के बारे में कब लिखना शुरू किया और कब छापना शुरू किया? लोगों ने कब इसे स्वीकारना शुरू किया कि 'हाँ, यह भी एक विधा हो सकती है लेखन कि'?

PA: मैं नहीं जानता कि लोगों ने स्वीकार या नहीं स्वीकार. मगर चंद लोगों से मिलके मुझे ऐसा ज़रूर लगा कि सिनेमा के जो गीत हैं, जिसे 'गोल्डन एरा' कहा जाता है, ४० से लेके ६०, ६५, मैं थोडा सा और खींच देना चाहता हूँ, ७० तक बहुत ही खूबसूरत गीत लिखे गए और बहुत ही खूबसूरती से उन्हें परदे पर भी प्रस्तुत किया गया. मैं बिल्कुल इस बारे में दृढ़ विशवास रखता हूँ कि कम से कम आधी ऐसी खूबसूरत फिल्में ज़रूर हैं जो अपने संगीत के कारण ही आज हमें याद हैं वरना हम कभी का भूल चुके होते, चाहे वोह नागिन हो या अनारकली हो, और तो और छोड़ दीजिये, मधुमती भी उसके संगीत के बिना बिल्कुल अपाहिज हो जायेगी...

YK: बहुत सही है

PA:... यद्यपि वोह एक खूबसूरत फ़िल्म है और बहुत ही खूबसूरती से banaaee गई फ़िल्म है, परन्तु उसकी खूबसूरती उसके संगीत से ही निखरकर सामने आती है, यदि वोह संगीत नहीं होता तो वोह खूबसूरती कभी निखरकर सामने नहीं आती.

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Song: घड़ी घड़ी मोरा दिल धडके (मधुमती)
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प्: दुनिया पे लिखने का कोई कारण ही नहीं था, मैं सपने में रहता हूँ, आज भी मैं सपने में रहता हूँ, परन्तु आज स्थिति ऐसा है कि आज मुझे फ़िल्म दिखाने के लिए लोग मुझे बहुत दूर दूर से बुलाते हैं कि 'आप आइये, फ़िल्म देख लीजिये और बताइये कि फ़िल्म का भविष्य क्या होगा या क्या कुछ होगा'. परन्तु वोह एक ऐसा समय था जब मुझे फ़िल्म देखने के लिए बहुत पैसा खर्च करना पड़ता था, तो फ़िल्म बनाना जितना खर्चीला काम है, उससे अधिक फ़िल्म देखना खर्चीला है (यक लौघ्स). एक 'कमों मन' के लिए वोह सोचते नहीं कि यह कितना खर्चीला और कठिन काम है. उस समय तो ऐसा होता था कि फ़िल्म 'रिलीज़' होने के महीने बाद, महीने बाद ही जबलपुर में फ़िल्म आती थी. जबलपुर कोई छोटी जगह नहीं है लेकिन आधी से ज्यादा फिल्में तो बाद में ही आती थीं. तो हम उन फिल्मों को देखने के लिए, किसी तरह उनको देख पाते थे, कभी कभी रिश्तेदारों कि मदद से भी देखी. लेकिन १६/१७ साल कि उम्र में मैं इतना सामर्थवान हो गया था कि अपने पैसे से फिल्में देख सकता था. तब मैंने किसी कि बात नहीं maanee और फिल्में देखता था, क्यूँ देखता था यह मुझे पता नहीं. मैंने मेरा नाम जोकर देखकर ही, प्रतिदिन मेरा नाम जोकर देखकर मैंने अपने माँ के चारों 'papers' 'previous' के deeye थे, और 'यूनिवर्सिटी' में 'top' किया था.

YK: waah! (PA laughs)

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Song: more ang lag jaa baalma (Mera Naam Joker)
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PA: तो लोग यह तोहमत नहीं लगा पाते थे कि 'तुम सिएनेमा देखोगे तो 'फ़ैल' हो जायोगे, पढता लिखता नहीं है, कुछ नहीं करता है'. मैं नौकरी भी करता था, पढता भी था, और सिनेमा भी देखता था. तो अपने खर्च के लिए ही, अपने परिवार के खर्च के लिए ही मुझे नौकरी करने कि ज़रूरत थी, और उसके साथ साथ सिनेमा भी एक आनंद था. पर मैंने सिनेमा पर लिखा कभी नहीं, मेरी साहित्य पर दो तीन किताबें गई, तब तक भी मैंने सिनेमा पर कभी नहीं लिखा था. मेरी स्वर्गीय पत्नी वर्तिका अगरवाल, वोह स्वयं एक कहानी लेखिका थीं, और वोह जिस समय बहुत बीमार पड़ीं, तो उनको भी सिनेमा देखने का शौक था, मुझे भी था, तो एकाएक विश्वनाथ फ़िल्म देखने हम गए हुए थे और कालीचरण फ़िल्म देखके मुझे लगा था कि यह सुभाष घी नाम का जो नया निर्देशक आया है, यह अच्छा आदमी लगता है जिनको जानकारी है सिनेमा कि, तो मैं उस फ़िल्म को देखने गया और बड़ा निराश होकर लौटा. मैंने एक लेख लिखा भी था 'विश्वनाथ बाबू, आप मुक़द्द्मा हार गए'

YK: कहाँ छापा यह?

PA: लेख क्या लिखा कुछ 10/12/१६ पंक्तियाँ लिखी, तो वर्तिका ने पढीं और कहा कि 'यह तो बहुत बढिया है, कहीं भेज दो, यह तो छप जाएगा'. मैंने कहा 'कहाँ छप jaayega, कौन सी पत्रिका इसे chaapegi?' कहने लगी 'तुम कुछ मत करो', और उन्होंने उस लेख को dobaara लिखा और लिखने के बाद मायापुरी पत्रिका में भेज दिया, और वोह, इसे क्या कहें, एक haadsaa ही कहना chaahiye, उसके अगले ही ank में उसे छाप दिया और उसके सम्पादक महोदय ने मुझे लिखा कि आगे और इन इन विषयों पर, इन इन लोगों पर लिख सकते हैं तो लिखकर भेज दीजिये. agla लेख Madhuri में chhap गया, फिर Manorama में मेरे लेख निरंतर chhapne लगे. फिर उसके बाद रविवार में उदयन शर्मा-जी ने मेरे बहुत लेख छापे, साप्ताहिक हिन्दुस्तान में भी मेरे किताब से कुछ अंश निकालकर दूसरों के नाम से छापे, राज कपूर पर वाली किताब से.

YK: अच्छा?

PA: हाँ. अगले अंक में फिर उन्होंने माफीनामा भी छापा जब मैंने आपत्ति की कि 'यह लेख आपने छापा है जो मेरे किताब की है', तो उन्होंने अगले अंक में माफ़ीनामा छापा कि 'हम खेद व्यक्त करते हैं कि यह प्रह्लाद अगरवाल कि pustak से बनाया गया लेख था, किंतु गलती से उनका नाम डालना छूट गया था, उसकी हम त्रुटि सुधार करते हैं'. फिर मैंने उनको लिखा कि अगर आप ने त्रुटि सुधार कर ही ली है तो उसका पारिश्रमिक मुझे भेज दीजिये, लेकिन उन्होंने पारिश्रमिक मुझे कभी नहीं भेजा (laughs)

YK: इस तरह आपकी फिल्मी लेखन शुरू हुयी, मतलब आप छपने लगे तमाम जगहों पर. कौन सा संगीत आपको ज्यादा प्रभावित करता था और ज़िन्दगी में सिनेमा और संगीत कि इतनी जगह थी तो आपको ऐसा नहीं लगता था कि आपके काम में और पारिवारिक ज़िन्दगी में बाधा रही है?

PA: नहीं, पारिवारिक ज़िन्दगी में बाधा इसलिए नहीं महसूस की क्यूंकि मैं देखता था सब गाते थे. उस समय एक गाना लोग दासों साल से गा रहे थे "मेरा जूता है जापानी". मेरे मामाजी आए, १९६० की बात है. मुग़ल--आज़म मुझे बहुत अच्छी लगी थी, मैंने कलकत्ते में देखी थी अपने मौसाजी के साथ. तो वो आए और फ़िल्म देखने गए और उठकर जब वो आए, मैं १३ साल का था उस समय, तो उन्होंने हमारी माँ से कहा की 'जीजी, यह फ़िल्म दिखाने हम आपको ज़रूर ले चलेंगे, उसमें एक बहुत अच्छा गाना है "प्यार किया तो डरना क्या"'. मैंने सुना उनके मुंह से और मन ही मन कसमसाया की देखो बुढऊ क्या कह रहे हैं कि इन्हे "प्यार किया तो डरना क्या" गाना अच्छा लग रहा है (yu खान हँसते हैं )

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Song: प्यार किया तो डरना क्या (मुग़ल- -आज़म)
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PA: सिनेमा ने सब पर प्रभाव डाला, गहरा प्रभाव डाला, मगर इस 'ह्य्पोक्रिते' समाज ने सिनेमा के प्रभाव को कभी स्वीकार नहीं किया. हुआ यह कि मेरा 'इंटरनल एक्सामिनाशन' था बा का, उसमें उपमा अलंकार का उदाहरण पूछा गया. मैंने उपमा अलंकार का उदाहरण उसमें लिख दिया "देखा भी नहीं तुझको, सूरत भी पहचानी, तू आके चली छम से जो धुप के दिन पानी". तो इतने प्रसन्ना हुए मेरे शिक्षक जिसकी कोई हद नहीं थी. उन्होंने पूछा 'बेटे, यह किसकी रचना है? हमने तो कहीं पढा नहीं, तुम कहाँ से यह उदाहरण ढूँढ लाये?' मैंने कहा कि यह शंकर शैलेन्द्र कि रचना है, मैं जानता था कि वो नाराज़ होनेवाले हैं. पूछा कि 'यह कौन कवि हैं?' मैंने कहा कि यह फिल्मों में लिखते हैं (यक लौघ्स). बोले 'यह फ़िल्म का गीत है?' उन्होंने उसे काट दिया और मुझे शून्य 'नम्बर' दीये. तो यह मुझे मजबूर किया, मजबूर नहीं कहना चाहिए, ग़लत हुआ, मुझे प्रेरित किया, प्र्योत्साहित किया कि मैं शैलेन्द्र पर एक पूरी किताब लिखूं और वो किताब ज्ञान-जी के ही, मुझे कहना चाहिए कि उनके कृपा से ही सम्भव हुयी कि पहल में उन्होंने मुझसे बहुत दबाव डालकर, बहुत दबाव डालकर मुझसे लेख लिखवाया शैलेन्द्र पर और सुधा अरोरा-जी जो यहीं रहती हैं बम्बई में, उन्होंने मुझे एक सप्ताह अपने वसुंधरा कार्यालय में बुलवाकर ख़ुद छापना चाहती थीं वो किताब शैलेन्द्र पर, पर बाद में उसे राजकमल ने छापा और मैंने उसका शीर्षक भी दिया "कवि शैलेन्द्र - ज़िन्दगी कि जीत में यकीन". तो शैलेन्द्र को हमने कवि नहीं माना, इससे वो कवि होने से रह नहीं जायेंगे, शैलेन्द्र कवि हैं, और देखिये "माटी से खेलते हो बार बार किसलिए, टूटे हुए खिलौनों से है प्यार किसलिए", "तू प्यार का सागर है"

YK: "तेरी एक बूँद के प्यासे हम"

PA: "लौटा जो दिया तुने, चले जायेंगे जहाँ से हम"

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Song: tu pyaar ka saagar hai (Seema)
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TO BE CONTD...

YK: प्रह्लाद-जी, एक गीतकार जिसे बहुत बंधे बंधाये दाएरे में काम करना पड़ता है क्यूंकि हमारे यहाँ फिल्मों में बहुत विविधता नहीं है विषयों में.

PA: हम फिर कहना चाहते हैं कि विषयों कि विविधता दुनिया भर के सिनेमा में कहाँ है, और राज कपूर कि एक फ़िल्म में गाना है, जिस देश में गंगा बहती है, "प्यार करले नहीं तो फांसी चढ़ जाएगा", तो दो ही चीज़ें हैं कि प्यार करना चाहते हैं या फांसी चढ़ना चाहते हैं, तो अच्छाई की कहानी है या बुराई की कहानी, यथार्थ ज़िन्दगी में कभी कभी बुराई भी जीतती है.

YK: प्रह्लाद-जी, कुछ ऐसे गीतों की चर्चा कीजिये जो शैलेन्द्र ने फिल्मों के लिए लिखे लेकिन जो कविता से कम नहीं हैं.

PA: मैं आपको बताऊँ, वो बहुत अद्भुत गीत है और उसकी 'सिमिली' भी बहुत अद्भुत 'सिमिली' है, और आज भी वो गीत जाता है तो नए से नए लोग सुनते हैं, "मेरे पिया गए रंगून, किया है वहाँ से 'टेलीफोन', तुम्हारी याद सताती है"

YK: पन्ना लाल संतोषी ने इसे लिखा है

PA: जी हाँ, प्यारेलाल संतोषी ने जो गीत लिखा उसमें 'सिमिली' देखिये, की "तुम बिन साजन जनवरी फरवरी बन गए मई और जून", देखिये अंग्रेजीकरण की क्या शानदार बात थी और किस तरह से 'सिमिली' और किस तरह से चीज़ों को 'कॉमिक' अंदाज़ में पेश किया, तो उसमें एक आदमी को सोचने की, एक आदमी को एक व्यंग की एक धार उन्होंने दिया.

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Song: मेरे पिया गए रंगून (Patanga)
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PA: फिल्मी गीतों की जब बात हो, राजेंद्र क्रिशन-जी हैं, और राजेंद्र कृष्ण के साथ शकील बदायुनी भी हैं, और इससे बड़ी अगर हम बात करें, जो साम्प्रदायिक एकता है, जो कौमी एकता हो सकती है, की एक भजन जिसे शकील ने लिखा, नौशाद ने संगीतबद्ध किया और मोहद रफी ने गाया, " दुनिया के रखवाले"

YK: बैजू बावरा

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Song: दुनिया के रखवाले (बैजू बावरा)
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PA: साहिर लुधिंवी ने भी बहुत अद्भुत गीत लिखे, यह सिनेमा का गीत है, की "यह बदकिस्मत माँ है जो बेटों की सेज पे लेती है, औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया". यह अन्तिम पंक्ति अगर आप देखें तो आज इस आधुनिकतम समय में भी क्या कोई ऐसी कठोर बात कह सकता है, और कितनी कठोर बात कितनी शालीनता से कही जा सकती है, की "अवतार पयम्बर जनती है फिर भी शैतान की बेटी है, यह वो बदकिस्मत माँ है जो बेटों की सेज पे लेती है"

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Song: औरत ने जनम दिया मर्दों को (साधना)
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YK: आपको क्या लगता है की भारतीय फ़िल्म उद्योग, जो संसार में महत्वपूर्ण फ़िल्म उद्योगों में माना जाता है, सबसे ज्यादा फिल्में हमारे यहाँ बनती है, कितना महत्वपूर्ण काम कर रही है समाज को बदलने की दिशा में?

PA: डॉ रमाकांत श्रीवास्तव से 'टेलीफोन' पर बात हो रही थी, वसुधा के फ़िल्म अंक के बारे में, तो हमने कहा की 'आप किस फ़िल्म पर लिखना पसंद करेंगे?' तो काफ़ी 'डिस्कशन' होता रहा, उन्होंने कहा की 'प्रह्लाद, देखो सिनेमा ने बहुत काम किया है हिन्दी 'बेल्ट' में, उसको लोग भूल जाते हैं, उसने लोगों को प्रेम करना सीखाया है, और कोई भी क्रान्ति प्रेम के अभाव में नहीं हो सकती. प्रेम के अभाव में कोई आप से जुडेगा नहीं, प्रेम शरीर पर नहीं होता है, मगर यह मत समझियेगा की शरीर से जुदा भी प्रेम होता है, क्यूंकि आत्मा भी रहती है तो शरीर में ही रहती है, तो शरीर का महत्व बहुत बड़ा है, यह दस द्वारे का जो पिंजरा है, इस पिंजरे में बहुत साड़ी बातें समाती हैं, और सिनेमा पर बात करेंगे तो साहित्यकार ही बात करेंगे, लिखे पढ़े लोग ही बात करेंगे, और साहित्यकार की जगह सिनेमा में कभी बनी नहीं, इसलिए यह भ्रम किसी भी लेखक को नहीं होना चाहिए की सिनेमा उसका माध्यम है, सिनेमा लेखक का माध्यम कतई नहीं.

YK: आप इतने सालों से लगातार सिनेमा देख रहे हैं. आज के अभिनेताओं में सबसे ज्यादा प्रभावित आपको कौन करता है?

PA: पंकज कपूर, निर्द्वंद रूप से, मैं कह सकता हूँ की अद्भुत अभिनेता हैं, वो विश्वस्तर का यानी, मैं क्या कहूं अब, अभी हल्ला बोल भी मैंने उनकी वजह से, काट-छांट के बनाई, उतने ही दृश्य उसमें जोड़ लिए जितने पंकज कपूर के हैं. सिर्फ़ उनकी भंगिमा देखिये हाथ की, हिंसा दिखाने के लिए कितनी कम हिंसा दिखाने की ज़रूरत होती है और कितना तीव्र प्रभाव आप पैदा कर सकते हैं, यह पंकज कपूर ने उस दृश्य में दिखा दिया.

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Song: अंग अंग ज़ख्मी है तेरा (हल्ला बोल)
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YK: क्या आपको लगता है की भारतीय अभिनेता विश्वस्तर पर अपना प्रभाव छोड़ पाने लायक प्रतिभाशाली हैं?

PA: उससे अधिक हैं, मैंने तमाम अंग्रेजी फिल्में देखी हैं, तमाम ऑस्कर प्राप्त फिल्में भी मैं देखा करता हूँ.

YK: सतना में रहते हुए भी कैसे जुटाते हैं आप यह सब सामग्री?

PA: देखिये, पहले तो मैं असमर्थ था, बड़ी मुश्किल हुआ करता था, मगर अब तो मैं सिनेमा देखने के लिए सतना पर बहुत कम आश्रित होता हूँ, आजकल तो डीवीडी का ज़माना है, मेरे पास सब तामझाम है और मैं ख़ुद देख सकता हूँ, परन्तु अब भी मैं 'ठेअतरे' में जाकर फ़िल्म देखना ही पसंद करता हूँ, और फ़िल्म देखने का मज़ा 'थिएटर' में ही है, घर में कतई नहीं है.

YK: बहुत सही है.

PA: और मैं अभी भी फिल्में देखने 'थिएटर' में जाता हूँ, और बम्बई भी आता हूँ आपकी फ़िल्म देखने के लिए, दिल्ली भी जाता हूँ, कलकत्ता भी जाता हूँ, यहाँ तक की हैदराबाद भी गया हूँ फ़िल्म देखने के लिए, मुझे पता चला की वहाँ हिन्दी की फिल्में बहुत देखी जाती है, शायद ही कोई शहर बचा हो जहाँ पर जाकर मैंने फिल्में देखी हो, और फ़िल्म फेस्टिवल्स में भी जाता हूँ और फ़िल्म फेस्टिवल्स में जाकर पत्रकारों के बीच बैठकर फ़िल्म देखना मुझे कभी रास नहीं आया

YK: बहुत सही है

PA: मैं महँगी 'तिक्केट्स' खरीद्के फिल्में देखता हूँ क्यूंकि मैं एक दर्शक के साथ बैठकर फ़िल्म देखना चाहता हूँ, मैं जब फ़िल्म देखने के लिए जाता हूँ तो फ़िल्म की आलोचना करने के लिए नहीं जाता हूँ, ' विश तो एन्जॉय आईटी' और मैं उसको 'एन्जॉय' करता हूँ. तो वो साड़ी चीज़ें बहुत मादक ढंग से मेरे पास आती हैं, और मेरे साथ रहती हैं, और मैं देखता हूँ की मुझे साहित्य को समझने में भी सिनेमा ने बड़ा योगदान दिया. तो सिनेमा एक कला है, और ज़रूर है, और साड़ी कलाओं का समूचा है कह लीजिये क्यूंकि उसमें कविता भी होगी, कहानी भी होगी, नाटक भी होगा, उसमें बधाई भी काम आएगा, उसमें 'एलेक्ट्रिचियन' भी काम आएगा, उसमें साड़ी 'टेक्नोलॉजी' भी जुड़ जायेगी. तो सारे समूह को लेकर जो सृजनकर्ता है वो सर्जक, सिनेमा का सर्जक होता है, साहित्यकार एकाकी सृजक होता है.

YK: प्रह्लाद-जी, अब एक गाना सुन लिया जाए

PA: अवश्य

YK: बताइये कौन सा गाना सुना जाए

PA: मुग़ल--आज़म फ़िल्म का एक गीत सुनिए, वो भी एक बहुत अद्भुत गीत है, "मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोये"

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Song: मोहब्बत की झूटी कहानी पे रोये (मुग़ल--आज़म)
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YK: आखरी सवाल प्रह्लाद-जी आपसे, बहुत आनंद-दायाक्ल बातचीत आप से हो रही है, सवाल यह है की इतनी सारी फिल्मों को देखने और फिल्मों को इस गंभीरता के साथ जीने के बाद क्या आपको किसी भी पल यह नहीं लगा की आपको फ़िल्म लेखक या निर्देशक होना चाहिए था?

PA: नहीं! एक मेरे मन में, जब मैंने राज साहब से कहा था, जो उनके साथ वाले लोग तो नहीं समझ सकते थे, मगर वो समझ सकते थे, की मैं फ़िल्म लेखक कभी नहीं होना चाहता, इसलिए क्यूंकि फ़िल्म लेखक का 'मीडियम' है ही नहीं, और जो लेखक का 'मीडियम' नहीं है, वहाँ मैं लेखक होयूं जाके, यह बहुत भारी बेवकूफी है. यदि मैं लेखक होना चाहूँ तो मैं लिखता हूँ, मगर मेरी ख्वाहिश है की मरने से पहले एक फ़िल्म ज़रूर बनायुं, और मैंने एक बार प्रयास भी किया था, और वो प्रयास पूरी तरह से असफल भी नहीं कहा जा सकता, मैं अपने शहर में ही मैं यह मानता हूँ की जब तक फ़िल्म छोटी पूँजी से नहीं बनेगी तो इस समय में अच्छी फ़िल्म बनना बहुत कठिन है. मैं यह भी नहीं मानता की कोई अच्छे लोग नहीं है, कोई बिमल रॉय नहीं है, कोई महबूब खान नहीं है, कोई राज कपूर नहीं है, मैं यह मानता हूँ की अद्भुत अद्भुत लोग हैं, और अद्भुत काम कर सकते हैं, मगर इस पूँजी के तंत्र को...

YK: तोड़ देगा

PA: तोड़ना तो पडेगा ही, पूँजी का तंत्र सिनेमा से नहीं जोड़ा जा सकता. पूँजी के तंत्र को बहेतर उपयोग में नहीं ला पा रहे हैं. आख़िर राज कपूर भी पूँजी के तंत्र में काम करते थे और V शांताराम भी करते थे और सत्यजित राय भी करते थे, सत्यजित राय की अधिकांश फिल्में R D बंसल ने 'प्रोड्यूस ' किये जो सबसे बड़े 'producer' हैं बंगला फिल्मों के. तो पूँजी को आप लड़िये नहीं, पूँजी का सदुपयोग कीजिये. यदि आप '18 crore' देंगे किसी 'star' को, तो फ़िल्म उस 'star' का महिमा मंडन नहीं करेगी तो '18 करोड़' आयेंगे कहाँ से?

YK: तो आप ने फ़िल्म बनाने का प्रयास किया था?

PA: हाँ, किया था, मैंने फ़िल्म बनाने का प्रयास किया था और वो प्रयास जारी है और मुझे लगता है की कभी कभी मैं safal hoyunga.

YK: प्रह्लाद-जी, बहुत आनंद आया, आज के मेहमान कार्यक्रम में आने और इतना समय देने के लिए, बहुत बहुत शुक्रिया.

PA: धन्यवाद, बहुत बहुत शुक्रिया आपका हुज़ूर.

THE END